Dinabandhu Ashtakam | दीनबन्ध्वष्टकम्

दीनबन्ध्वष्टकम् (Dinabandhu Ashtakam ) एक भक्तिपूर्ण संस्कृत स्तोत्र है, जिसमें भगवान विष्णु को “दीनों के बन्धु” यानी दुखियों के सच्चे सहारा के रूप में स्मरण किया गया है। इसमें कुल आठ श्लोक हैं, जो भगवान की करुणा, उनकी लीलाएं, रूप, शक्ति और भक्तों पर कृपा की महिमा का वर्णन करते हैं। यह पुण्यदायक अष्टक ब्रह्मानंद नामक भक्त द्वारा रचित है। जो भी इस स्तोत्र को श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ता है, उस पर भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं।

Dinabandhu Ashtakam

यस्मादिदं जगदुदेति चतुर्मुखाद्यंयस्मिन्नवस्थितमशेषमशेषमूले।

यत्रोपयाति विलयं च समस्तमन्तेदृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥1॥

जिस परमात्मा से यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है, जिसमें यह संपूर्ण जगत स्थित है और अंततः जिसमें सब कुछ लीन हो जाता है, वह सम्पूर्ण जगत का मूल कारण है – वही परमात्मा आज मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

चक्रं सहस्रकरचारु करारविन्देगुर्वी गदा दरवरश्च विभाति यस्य।

पक्षीन्द्रपृष्ठपरिरोपितपादपद्मो।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥2॥

जिसके कमल समान हाथों में सुंदर चक्र, गदा, शंख और वरदान देने वाला हाथ सुशोभित है, जिसके चरण पक्षीराज गरुड़ पर विराजमान हैं — वह परमेश्वर आज मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

येनोद्धृता वसुमती सलिले निमग्ना नग्नाच पाण्डववधूः स्थगिता दुकूलैः।

संमोचितो जलचरस्य मुखाद्गजेन्द्रो।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥3॥

जिन्होंने जल में डूबी पृथ्वी को उठाया, द्रौपदी की लाज की रक्षा की और गजेंद्र को मगर से छुड़ाया — वह करुणामय प्रभु आज मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

यस्यार्द्रदृष्टिवशतस्तु सुराः समृद्धिंकोपेक्षणेन दनुजा विलयं व्रजन्ति।

भीताश्चरन्ति च यतोऽर्कयमानिलाद्या।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥4॥

जिनकी कृपादृष्टि से देवता समृद्ध होते हैं और जिनकी क्रोधित दृष्टि से दानव नष्ट हो जाते हैं, जिनसे सूर्य, यम, वायु आदि भी भयभीत रहते हैं — वह प्रभु आज मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

गायन्ति सामकुशला यमजं मखेषुध्यायन्ति धीरमतयो यतयो विविक्ते।

पश्यन्ति योगिपुरुषाः पुरुषं शरीरे।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥5॥

जिनका गुणगान वैदिक पंडित सामवेद के माध्यम से करते हैं, जिनका ध्यान मुनिजन एकांत में करते हैं, और योगी अपने भीतर उन्हें अनुभव करते हैं — वह प्रभु आज मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

आकाररूपगुणयोगविवर्जितोऽपि मददभक्तानुकम्पननिमित्तगृहीतमूर्तिः।

यः सर्वगोऽपि कृतशेषशरीरशय्यो।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥6॥

जो स्वयं निराकार, निरगुण हैं, परंतु भक्तों पर करुणा करने के लिए मूर्ति धारण करते हैं, जो सर्वव्यापक होते हुए भी शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं — वह प्रभु मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

यस्याङ्घ्रिपङ्कजमनिद्रमुनीन्द्रवृन्दैराराध्यते भवदवानलदाहशान्त्यै।

सर्वापराधमविचिन्त्य ममाखिलात्मा।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥7॥

जिनके चरणकमलों की पूजा बड़े-बड़े मुनिजन करते हैं ताकि संसार रूपी अग्नि का ताप शांत हो, और जो मेरे समस्त अपराधों को बिना विचार किए क्षमा करते हैं — वह प्रभु मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

यन्नामकीर्तनपरः श्वपचोऽपि नूनंहित्वाखिलं कलिमलं भुवनं पुनाति।

दग्ध्वा ममाघमखिलं करुणेक्षणेन।दृग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः॥8॥

जिसके नाम का संकीर्तन करने मात्र से नीच व्यक्ति भी पवित्र हो जाता है और सम्पूर्ण संसार का कलिमल नष्ट हो जाता है, जिनकी करुणा दृष्टि से मेरे समस्त पाप भस्म हो जाएं — वही प्रभु मेरी दृष्टि में प्रकट हों — वही दीनों के बन्धु।

दीनबन्ध्वष्टकं पुण्यंब्रह्मानन्देन भाषितम्।

यः पठेत् प्रयतो नित्यंतस्य विष्णुः प्रसीदति॥9॥

यह पुण्यदायक अष्टक ब्रह्मानंद नामक भक्त द्वारा रचित है। जो भी इस स्तोत्र को श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ता है, उस पर भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं।

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