विदिताखिल शास्त्र सुधा जलधे
महितोपनिषत्-कथितार्थ निधे ।
हृदये कलये विमलं चरणं
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 1 ॥
करुणा वरुणालय पालय मां
भवसागर दुःख विदून हृदम् ।
रचयाखिल दर्शन तत्त्वविदं
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 2 ॥
भवता जनता सुहिता भविता
निजबोध विचारण चारुमते ।
कलयेश्वर जीव विवेक विदं
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 3 ॥
भव ऎव भवानिति मॆ नितरां
समजायत चेतसि कौतुकिता ।
मम वारय मोह महाजलधिं
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 4 ॥
सुकृतेऽधिकृते बहुधा भवतो
भविता समदर्शन लालसता ।
अति दीनमिमं परिपालय मां
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 5 ॥
जगतीमवितुं कलिताकृतयो
विचरन्ति महामाह सच्छलतः ।
अहिमांशुरिवात्र विभासि गुरो
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 6 ॥
गुरुपुङ्गव पुङ्गवकेतन ते
समतामयतां न हि कोऽपि सुधीः ।
शरणागत वत्सल तत्त्वनिधे
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 7 ॥
विदिता न मया विशदैक कला
न च किञ्चन काञ्चनमस्ति गुरो ।
दृतमेव विधेहि कृपां सहजां
भव शङ्कर देशिक मे शरणम् ॥ 8 ॥
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