Thu. Mar 13th, 2025

चालीसा: भगवान श्री शीतलनाथ जी (Bhagvan Shree Sheetalnath Ji Chalisa)

॥ दोहा॥
शीतल हैं शीतल वचन ।
चन्दन से अधिकाय ॥

कल्प वृक्ष सम प्रभु चरण ।
हैं सबको सुखकाय ॥

॥ चौपाई ॥
जय श्री शीतलनाथ गुणाकर ।
महिमा मंडित करुणासागर ॥

भाद्दिलपुर के दृढरथ राय ।
भूप प्रजावत्सल कहलाये ॥

रमणी रत्न सुनन्दा रानी ।
गर्भ आये श्री जिनवर ज्ञानी ॥

द्वादशी माघ बदी को जन्मे ।
हर्ष लहर उठी त्रिभुवन में ॥

उत्सव करते देव अनेक ।
मेरु पर करते अभिषेक ॥

नाम दिया शिशु जिन को शीतल ।
भीष्म ज्वाल अध् होती शीतल ॥

एक लक्ष पुर्वायु प्रभु की ।
नब्बे धनुष अवगाहना वपु की ॥

वर्ण स्वर्ण सम उज्जवलपीत ।
दया धर्मं था उनका मीत ॥

निरासक्त थे विषय भोगो में ।
रत रहते थे आत्म योग में ॥

लगे ओसकण मोती जैसे ।
लुप्त हुए सब सूर्योदय से ॥

देख ह्रदय में हुआ वैराग्य ।
आत्म राग में छोड़ा राग ॥

तप करने का निश्चय करते ।
ब्रह्मर्षि अनुमोदन करते ॥

विराजे शुक्र प्रभा शिविका में ।
गए सहेतुक वन में जिनवर ॥

संध्या समय ली दीक्षा अश्रुण ।
चार ज्ञान धारी हुए तत्क्षण ॥

दो दिन का व्रत करके इष्ट ।
प्रथामाहार हुआ नगर अरिष्ट ॥

दिया आहार पुनर्वसु नृप ने ।
पंचाश्चार्य किये देवों ने ॥

किया तीन वर्ष तप घोर ।
शीतलता फैली चहु और ॥

कृष्ण चतुर्दशी पौषविख्यता ।
केवलज्ञानी हुए जगात्ग्यता ॥

रचना हुई तब समोशरण की ।
दिव्यदेशना खिरी प्रभु की ॥

आतम हित का मार्ग बताया ।
शंकित चित्त समाधान कराया ॥

तीन प्रकार आत्मा जानो ।
बहिरातम अन्तरातम मानो ॥

निश्चय करके निज आतम का ।
चिंतन कर लो परमातम का ॥

मोह महामद से मोहित जो ।
परमातम को नहीं माने वो ॥

वे ही भव भव में भटकाते ।
वे ही बहिरातम कहलाते ॥

पर पदार्थ से ममता तज के ।
परमातम में श्रद्धा कर के ॥

जो नित आतम ध्यान लगाते ।
वे अंतर आतम कहलाते ॥

गुण अनंत के धारी हे जो।
कर्मो के परिहारी है जो ॥

लोक शिखर के वासी है वे ।
परमातम अविनाशी है वे ॥

जिनवाणी पर श्रद्धा धर के ।
पार उतारते भविजन भव से ॥

अश्री जिन के इक्यासी गणधर ।
एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर ॥

अंत समय में गए सम्म्मेदाचल ।
योग धार कर हो गए निश्चल ॥

अश्विन शुक्ल अष्टमी आई ।
मुक्तिमहल पहुचे जिनराई ॥

नलक्षण प्रभु का कल्पवृक्ष था ।
त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था ॥

॥ दोहा॥
शीतल चरण शरण में आओ,
कूट विद्युतवर शीश झुकाओ ।
शीतल जिन शीतल करें,
सबके भव आतप ।

अरुणा के मन में बसे,
हरे सकल संताप ॥